Monday, December 23, 2024
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जयंती विशेषः महान क्रांतिकारी थे अमर शहीद बिरसा मुंडा

राकेश बिहारी शर्मा – हिन्दुस्तान की धरती पर समय-समय पर महान और साहसी लोगों ने जन्म लिया है। भारतभूमि पर ऐसे कई क्रांतिकारियों ने जन्म लिया है जिन्होंने अपने बल पर अंग्रेजी हुकूमत के दांत खट्टे कर दिए थे। ऐसे ही एक वीर थे बिरसा मुंडा। बिहार और झारखण्ड की धरती पर बिरसा मुंडा को भगवान का दर्जा अगर दिया जाता है तो उसके पीछे एक बहुत बड़ी वजह भी है। मात्र 25 साल की उम्र में उन्होंने लोगों को एकत्रित कर एक ऐसे आंदोलन का संचालन किया जिसने देश की स्वतंत्रता में अहम योगदान दिया। जनजाति समाज में एकता लाकर उन्होंने देश में धर्मांतरण को रोका और दमन के खिलाफ आवाज उठाई। समाज के परंपरागत प्रकृति निर्भर तत्व ने आर्थिक समाजवाद की अवधारणा को बिरसा के अंदर जागृत किया। गांधी से पहले गांधी की अवधारणा के तत्व के उभार के पीछे भी बिरसा का समाज एवं पड़ोस के सूक्ष्म अवलोकन एवं उसे नयी अंतर्दृष्टि देने का तत्व ही था। तभी तो उन्होंने गांधी के समान समस्याओं को देखा-सुना, फिर चिंतन-मनन किया। उनका मुंडा समाज को पुनर्गठित करने का प्रयास अंग्रेजी हुकूमत के लिए विकराल चुनौती बना।
उन्होंने नए बिरसाइत धर्म की स्थापना की तथा लोगों को नई सोच दी, जिसका आधार सात्विकता,आध्यात्मिकता, परस्पर सहयोग, एकता व बंधुता था। उन्होंने ‘गोरो वापस जाओ’ का नारा दिया एवं परंपरागत लोकतंत्र की स्थापना पर बल दिया, ताकि शोषणमुक्त जनजाति साम्यवाद की स्थापना हो सके। उन्होंने कहा था- महारानी राज जाएगा एवं अबुआ राज आएगा। स्वतंत्रता संग्राम के दौरान भारतभूमि पर ऐसे कई नायक पैदा हुए जिन्होंने इतिहास में अपना नाम स्वर्णाक्षरों से लिखवाया। एक छोटी सी आवाज को नारा बनने में देर नहीं लगती बस दम उस आवाज को उठाने वाले में होना चाहिए और इसकी जीती जागती मिसाल थे बिरसा मुंडा। बिरसा मुंडा ने बिहार और झारखंड के विकास और भारत के स्वतंत्रता आंदोलन में अहम रोल निभाया। भारतीय इतिहास में बिरसा मुंडा एक ऐसे महानायक थे जिन्होंने भारत के झारखंड में अपने क्रांतिकारी चिंतन से उन्नीसवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में आदिवासी समाज की दशा और दिशा बदलकर नवीन सामाजिक और राजनीतिक युग का सूत्रपात किया। काले कानूनों को चुनौती देकर बर्बर ब्रिटिश साम्राज्य को बिरसा ने सामाजिक और आर्थिक स्तर पर आदिवासियों में चेतना की चिंगारी सुलगा दी। भारतीय जमींदारों और जागीरदारों तथा ब्रिटिश शासकों के शोषण की भट्टी में आदिवासी समाज झुलस रहा था। बिरसा मुंडा ने आदिवासियों को ब्रिटिश के शोषण एवं यातना से मुक्ति दिलाने के लिए सभी को अपने स्तर से संगठित कर एक सुत्र में बांधा। बिरसा मुंडा ने ‘बेगारी प्रथा’ के विरुद्ध जबर्दस्त आंदोलन किया। परिणामस्वरूप जमींदारों और जागीरदारों के घरों तथा खेतों और वन की भूमि पर कार्य रूक गया। बिरसा मुंडा सही मायने में पराक्रम और सामाजिक जागरण के धरातल पर तत्कालीन युग के एकलव्य और स्वामी विवेकानंद थे।जयंती विशेषः महान क्रांतिकारी थे अमर शहीद बिरसा मुंडा
बिरसा मुंडा का जन्म 15 नवंबर 1875 को उलिहातु रांची में हुआ था। बिरसा का बचपन अपने दादा के गांव चालकद में ही बीता। यह कभी बिहार का हिस्सा हुआ करता था पर अब यह क्षेत्र झारखंड में आ गया है। साल्गा गांव में प्रारंभिक पढ़ाई के बाद वे सन 1886 ई0 से जर्मन ईसाई मिशन द्वारा संचालित चाईबासा के एक उच्च विद्यालय में बिरसा ने शिक्षा ग्रहण की। पिता सुगना मुंडा और माता करमी हातू के मन में ब्रिटिश सरकार के खिलाफ बचपन से ही विद्रोह था। बिरसा मुंडा को अपनी भूमि, संस्कृति से गहरा लगाव था। जब वह अपने स्कूल में पढ़ते थे तब मुंडा सरदारों की छिनी गई भूमि पर उन्हें दु:ख था या कह सकते हैं कि बिरसा मुंडा जनजातियों के भूमि आंदोलन के समर्थक थे तथा वे वाद-विवाद में हमेशा प्रखरता के साथ जनजातियों की जल, जंगल और जमीन पर हक की वकालत करते थे। उन्हीं दिनों एक पादरी डॉ. नोट्रेट ने लोगों को लालच दिया कि अगर वह ईसाई बनें और उनके अनुदेशों का पालन करते रहें तो वे मुंडा सरदारों की छीनी हुई भूमि को वापस करा देंगे। लेकिन 1886-87 में मुंडा सरदारों ने जब भूमि वापसी का आंदोलन किया तो इस आंदोलन को न केवल दबा दिया गया बलिक ईसाई मिशनरियों द्वारा इसकी भर्त्सना की गई जिससे बिरसा मुंडा को गहरा आघात लगा। उनकी बगावत को देखते हुए उन्हें विद्यालय से निकाल दिया गया। फलत: 1890 में बिरसा तथा उसके पिता चाईबासा से वापस आ गए। यही वह दौर था जिसने बिरसा मुंडा के अंदर बदले और स्वाभिमान की ज्वाला पैदा कर दी। बिरसा मुंडा पर संथाल विद्रोह, चुआर आंदोलन, कोल विद्रोह का भी व्यापक प्रभाव पड़ा। अपनी जाति की दुर्दशा, सामाजिक, सांस्कृतिक एवं धार्मिक अस्मिता को खतरे में देख उनके मन में क्रांति की भावना जाग उठी। उन्होंने मन ही मन यह संकल्प लिया कि मुंडाओं का शासन वापस लाएंगे तथा अपने लोगों में जागृति पैदा करेंगे। बिरसा मुंडा न केवल राजनीतिक जागृति के बारे में संकल्प लिया बल्कि अपने लोगों में सामाजिक, सांस्कृतिक एवं धार्मिक जागृति पैदा करने का भी संकल्प लिया। बिरसा ने गांव-गांव घूमकर लोगों को अपना संकल्प बताया। उन्होंने ‘अबुआ: दिशोम रे अबुआ: राज’ (हमार देश में हमार शासन) का बिगुल फूंका। सन् 1857 के गदर के बाद सरदार आंदोलन संगठित जनांदोलन के रूप में शुरु हो गया तथा वर्ष 1858 से भूमि आंदोलन के रूप में विकसित यह आंदोलन सन् 1890 में तब राजनीतिक आंदोलन में तब्दील हो गया, जिसका नेतृत्व बिरसा मुंडा ने किया। बिरसा के लोकप्रिय व्यक्तित्व के कारण सरदार आंदोलन में नई जान आ गई। अगस्त 1895 में वन संबंधी बकाये की माफी का आंदोलन चला। उसका नेतृत्व भी बिरसा ने किया। जब अंग्रेजी हुकूमत ने मांगों को ठुकरा दिया तब बिरसा ने भी ऐलान कर दिया कि ‘सरकार खत्म हो गई। अब जंगल जमीन पर जनजातियों का राज होगा।’ 9 अगस्त 1895 को चलकद में पहली बार बिरसा को गिरफ्तार किया गया, लेकिन उनके अनुयायियों ने उन्हें छुड़ा लिया उनकी गतिविधियां अंग्रेज सरकार को रास नहीं आई। बिरसा और उनके शिष्यों ने क्षेत्र की अकाल पीड़ित जनता की सहायता करने की ठान रखी थी और यही कारण रहा कि अपने जीवन काल में ही उन्हें एक महापुरुष का दर्जा मिला। उन्हें उस इलाके के लोग “धरती बाबा” के नाम से पुकारा और पूजा करते थे। उनके प्रभाव की वृद्धि के बाद पूरे इलाके के मुंडाओं में संगठित होने की चेतना जागी। बिरसा के इस प्रकार लोगों को संगठित करने, अंग्रेज हुकूमत के खिलाफ भड़काने के कारण बौखलाई अंग्रेजी हुकूमत ने कई प्रयत्नों के बाद 24 अगस्त 1895 को रात के अंधेरे में उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया। उन पर ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ विद्रोह उकसाने का आरोप लगाया। मुंडा और कोल समाज ने बिरसा के नेतृत्व में सरकार के साथ असहयोग करने का ऐलान कर दिया। विरोध के तेवर में फर्क नहीं पड़ने के कारण मुकदमे की कार्रवाई रोककर उन्हें तुरंत जेल भेज दिया गया तथा उन्हें दो साल सश्रम कारावास की सजा सुनायी गई। फरवरी 1898 में डोम्बारी पहाड़ी पर मुंडारी क्षेत्र से आये मुंडाओं की सभा में उन्होंने आंदोलन की नई नीति की घोषणा की। सन् 1898 के अंत में यह अभियान रंग लाया और अधिकार हासिल करने, खोए राज्य की प्राप्ति का लक्ष्य, जमीन को मालगुजारी से मुक्त करने तथा जंगल के अधिकार को वापस लेने के लिये व्यापक गोलबंदी शुरु हुई। डोमबाड़ी पहाड़ी पर एक और संघर्ष हुआ था, जिसमें बहुत सी औरतें और बच्चे मारे गये थे। डोम्बारी पहाड़ी पर ही मुंडाओं की बैठक में बिरसा के द्वारा ‘उलगुलान’ का ऐलान किया गया। उलगुलान के इस एलान के बाद बिरसा के कुछ शिष्यों की गिरफ़्तारी भी हुई थी। बिरसा के इस आंदोलन की तुलना आजादी के आंदोलन के बहुत बाद सन् 1942 के अगस्त क्रांति के काल से की जा सकती है। बिरसा के नेतृत्व में अफसरों,पुलिस, अंग्रेज सरकार के संरक्षण में पलने वाले जमींदारों और महाजनों को निशाना बनाया गया और गोरिल्ला युध्द ने हुकूमत की चूलें हिला दीं। आंदोलन को कुचलने के लिए रांची और सिंहभूम को सेना के हवाले कर दिया गया। आंदोलन की रणनीति के तहत उन्होंने अपने आंदोलन के केन्द्र बदले तथा घने जंगलों में संचालन व प्रशिक्षण के केन्द्र बनाए। सन 1897 से 1900 के बीच मुंडाओं और अंग्रेज सिपाहियों के बीच युद्ध होते रहे और बिरसा और उसके चाहने वाले लोगों ने अंग्रेजों की नाक में दम कर दिया। 24 दिसम्बर 1899 को सिंहभूम जिले के चक्रधरपुर थाने और रांची जिले के खूंटी, करी, तोरपा, तमाड़ और बसिया थाना क्षेत्रों में उलगुलान की आग दहक उठी। बिरसा अंडर ग्राउंड रहकर अंग्रेजों के खिलाफ युद्ध करने लगे। 03 फरवरी 1900 ई. को 500/- रुपये के सरकारी ईनाम के लालच में जीराकेल गांवों के सात व्यक्तियों ने बिरसा मुंडा के गुप्त स्थान के बारे में अंग्रेजों को बताकर धोखे से पकड़वा दिया। बिरसा को पैदल ही खूंटी के रास्ते रांची पहुंचा दिया गया। 3 फरवरी 1900 को सेंतरा के पश्चिम जंगल में बने शिविर से बिरसा को गिरफ्तार कर उन्हें तत्काल रांची कारागार में बंद कर दिया गया। बिरसा के साथ अन्य 482 आंदोलनकारियों को गिरफ्तार किया गया। शेष अन्य गिरफ्तार लोगों में सिर्फ 98 के खिलाफ आरोप सिद्ध हो पाया। बिरसा के विश्वासी गया मुंडा और उनके पुत्र सानरे मुंडा को फांसी दी गई। गया मुंडा की पत्नी मांकी को दो वर्ष के सश्रम कारावास की सजा दी गई। मुकदमे की सुनवाई के शुरुआती दौर में उन्होंने जेल में भोजन करने के प्रति अनिच्छा जाहिर की। अदालत में तबियत खराब होने की वजह से जेल वापस भेज दिया गया। 01 जून को जेल अस्पताल के चिकित्सक ने सूचना दी कि बिरसा को हैजा हो गया है और उनके जीवित रहने की संभावना नहीं है। 09 जून 1900 की सुबह सूचना दी गई कि बिरसा अब इस दुनिया में नहीं रहे। इस तरह एक क्रांतिकारी जीवन का अंत हो गया। बिरसा के संघर्ष के परिणामस्वरूप छोटा नागपुर काश्तकारी अधिनियम 1908 बना। जल, जंगल और जमीन पर पारंपरिक अधिकार की रक्षा के लिए शुरु हुए आंदोलन एक के बाद एक श्रृंखला में गतिमान रह। आजादी के बाद औद्योगिकीकरण के दौर ने उस सामाजिक-आर्थिक व्यवस्था को ध्वस्त कर दिया जिसकी स्थापना के लिए बिरसा का उलगुलान था।
बिरसा मुंडा ने आदिवासियों को शोषण की नाटकीय यातना से मुक्ति दिलाने के लिए उन्हें तीन स्तरों पर संगठित करना आवश्यक समझा. पहला तो सामाजिक स्तर पर ताकि आदिवासी-समाज अंधविश्वासों और ढकोसलों के चंगुल से छूट कर पाखंड के पिंजरे से बाहर आ सके। इसके लिए उन्होंने आदिवासियों को स्वच्छता का संस्कार सिखाया। शिक्षा का महत्व समझाया। बिरसा मुंडा ने जब सामाजिक स्तर पर आदिवासी समाज में चेतना पैदा कर दी तो आर्थिक स्तर पर सारे आदिवासी शोषण के विरुद्ध स्वयं ही संगठित होने लगे। बिरसा मुंडा ने उनके नेतृत्व की कमान संभाली। बिरसा मुंडा की गणना महान देशभक्तों में की जाती है। उन्होंने जनजातियों को एकजुट कर उन्हें अंग्रेजी शासन के खिलाफ संघर्ष करने के लिए तैयार किया। इसके अतिरिक्त उन्होंने भारतीय संस्कृति की रक्षा करने के लिए धर्मान्तरण करने वाले ईसाई मिशनरियों का विरोध किया। ईसाई धर्म स्वीकार करने वाले हिन्दुओं को उन्होंने अपनी सभ्यता एवं संस्कृति की जानकारी दी और अंग्रेजों के षडयन्त्र के प्रति सचेत किया। बिरसा मुंडा के इस बलिदान को जनजातियों के तथा भारत देश के इतिहास में कभी भी भुलाया नहीं जा सकता है। उनके द्वारा धार्मिक, सांस्कृतिक तथा सामाजिक जागृति स्थापित करने के लिए शुरू किये गए अभूतपूर्व अभियान को एक परिणाम तक पहुँचाना ही उनके लिए एक सच्ची श्रद्धांजलि होगी। आज भी बिहार, उड़ीसा, झारखंड, छत्तीसगढ और पश्चिम बंगाल के आदिवासी इलाकों में बिरसा भगवान की तरह पूजे जाते हैं।

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