Monday, December 23, 2024
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बिहार का प्रेमचंद साहित्यकार अनूपलाल मंडल की 125 वीं जयंती पर विशेष :-बहुसंख्यक आबादी के दुख-दर्द का स्पंदन साहित्यकार अनूपलाल मंडल

प्रस्तुति :-राकेश बिहारी शर्मा -वर्ण व्यवस्थाई ताना-बाना से भारतीय समाज कुछ ऐसा बुना हुआ है कि प्रत्येक साहित्यकार, विचारक, दार्शनिक, राजनेता, अर्थशास्त्री ऐसे ही किसी भी क्षेत्र में सक्रिय व्यक्ति को कहीं न कहीं, किसी न किसी रूप में जाने-अनजाने संस्कारगत व्यक्तित्व की छाप उसे अपनी कृतियों या चिंतन में छोडऩी पड़ती है। अनूपलाल मंडल की ख्याति हिंदी साहित्य में कथाकार, संपादक, अनुवादक एवं जीवनी-लेखक के रूप में है। अनूपलाल मंडल गरीबों के पक्षधर साहित्यकार हैं। उनके साहित्य-सृजन का ताना-बाना गरीबों के हित को केंद्र में रखकर बुना गया है। इसलिए उनकी कृतियों में भारत की बहुसंख्यक आबादी के दुख-दर्द का स्पंदन है। अनूपलाल मंडल साहित्यिक कलाकार योद्धा हैं, साहित्यकार साधक हैं। उसकी कूची में हरी, पीली, गुलाबी रंगीनियों की कमी नहीं। उसकी लेखनी में खट्टे-मीठे-तीते रसों का अभाव नहीं है। कोई पिता के नाम से जाने जाते हैं, कोई दादा-परदादा के जमींदाराना ‘स्टेटस’ से पहचाने जाते हैं, किंतु यह पहचान पार्थिव देह की उपस्थिति तक ही संभव है। यह चरित्रानुसार व्यक्तिगत पहचान है, जिसे हम ‘व्यक्तित्व’ के दायरे में रखते हैं। किसी के स्वच्छ व्यक्तित्व हमें बेहद प्रभावित करता है, ऐसे व्यक्ति की खूबियाँ हमारे साथ ताउम्र जुड़ जाती हैं, परंतु इतिहास सबको संजो कर नहीं रख पाते हैं । हां, ऐसे व्यक्ति अगर समाज व राष्ट्र को मानव कल्याणार्थ कुछ देकर जाता है, तो उसके इस ‘अवदान’ को हम ‘कृतित्व’ कहते हैं। मृत्यु के बाद यही कृतित्व ही ‘अमर’ रहता है। साहित्यकार और वैज्ञानिक अपने कृतित्व के कारण ही अमर हैं। अपने आविष्कार ‘बल्ब’ के कारण थॉमस अल्वा एडिसन जगप्रसिद्ध हैं, जगदीश चन्द्र बसु तो ‘क्रेस्कोग्राफ’ के कारण। आज गोस्वामी तुलसीदास से बड़े ‘रामचरित मानस’ है और ‘मैला आँचल’ है तो फणीश्वरनाथ रेणु है। कुछ कृतियों के पात्र ही इस कदर अमर हो गए हैं कि लेखक ‘गौण’ हो गए हैं और कभी तो पात्र को जीनेवाले अभिनेता का मूल नाम समष्टि से बाहर हो जाता है, जैसे- गब्बर सिंह (अभिनेता- अमज़द खान)। ऐसे कृतिकारों के जन्मस्थली भी मायने रखते हैं, पोरबन्दर कहने मात्र से महात्मा गाँधी स्मरण हो आते हैं, ‘लमही’ तो उपन्यास सम्राट प्रेमचंद के पर्याय हो गए हैं।
कटिहार जिला (बिहार) में ‘समेली’ कोई विकसित प्रखंड नहीं है, किंतु बौद्धिकता के मामले में अव्वल है, परंतु ‘समेली’ (मोहल्ला- चकला मोलानगर) शब्द ‘मानस-स्क्रीन’ पर आते ही एकमात्र नाम बड़ी ईमानदारी से उभरता है, वह है- “अनूपलाल मंडल। बिहार का प्रेमचंद कहाने वाले महान कथा शिल्पी साहित्य रत्न अनूपलाल मंडल का जन्म फलका थाना के अंतर्गत चकला मौलानगर में समेली ग्राम में 11 अक्टूबर 1896 को एक सामान्य किसान परिवार में हुआ था। ये गांव के गरीब परिवार में जन्म लेने के बावजूद उन्होंने हिंदी साहित्य रत्न की उपाधि प्राप्त की। उन्होंने स्वाध्याय के बल पर साहित्य रत्न की परीक्षा उत्तीर्ण की और हिंदी के लेखक और कथाकार बने। अनूपलाल मंडल हिंदी साहित्य में कथाकार, संपादक, अनुवादक एवं जीवनी-लेखक के रूप में विख्यात हैं। वे ओबीसी की कैवर्त (केवट) जाति से आते हैं। कैवर्त मल्लाहों की एक जाति है यह जाति भार्गव पिता और अयोगवी माता से उत्पन्न बताई जाती है।
अनूपजी का प्रारम्भिक शिक्षा चकला-मोलानागर में ही हुई थी। मात्र 10 वर्ष की अवस्था में प्रथम शादी, पत्नी की मृत्यु के बाद दूसरी शादी 16 वर्ष की आयु मंं सुधा से। तीसरी शादी 27 वर्ष की उम्र में मूर्ति देवी से। सन 1911 में गाँव के उसी विद्यालय में प्रधानाध्यापक नियुक्त, जहाँ उन्होंने प्रारम्भिक शिक्षा ग्रहण किये थे। बाद में शिक्षक-प्रशिक्षण 1914 में सब्दलपुर (पूर्णिया) से प्राप्त किये। प्राथमिक और मध्य विद्यालयों से होते हुए 1922 में बेली हाई इंग्लिश स्कूल (अब- अनुग्रह नारायण सिंह उच्च विद्यालय) बाढ़ में, 1924 में टी0 के0 घोष अकादमी पटना में, 1928 में महानंद उच्च विद्यालय में हिंदी शिक्षक नियुक्त, तो 1929 में बीकानेर के इवनिंग कॉलेज में 100 रुपये मासिक वेतन पर हिंदी व्याख्याता नियुक्त, इसी घुमक्कड़ी जिंदगी में इसी साल चांद प्रेस, इलाहाबाद से पहला उपन्यास ‘निर्वासिता’ छपवाया, वैसे अन्य विधा में से पहली पुस्तक ‘रहिमन सुधा’ थी, जो 1928 में छपी थी। पुस्तक विक्रेता के रूप में गुलाबबाग, चंपानगर, अलमोड़ा, नैनीताल, लखनऊ, आगरा, मथुरा, काशी, रानीखेत, सीतापुर, मंसूरी, भागलपुर, कटिहार इत्यादि स्थानों में घूमते रहे। इस यायावरी-मोह को त्यागकर 1930 में घर-वापसी और गाँव समेली में ‘सेवा-आश्रम’ की स्थापना किये तथा जीविकोपार्जन के लिए लक्ष्मीपुर ड्योढ़ी में 50 रुपये मासिक पर असिस्टेंट मैनेजर की नौकरी की, परंतु इसे छोड़ इसी साल गुरुबाज़ार, बरारी (जिला- कटिहार) में ‘युगांतर साहित्य मंदिर’ नामक प्रकाशन संस्थान खोले। वर्ष 1930 में ही स्वप्रकाशन संस्थान से उपन्यास ‘समाज की वेदी पर’ प्रकाशित हुआ, जो क्रोनोलॉजिकल क्रम में दूसरा उपन्यास है। फिर 1931 में ‘साकी’ और ‘गरीबी के दिन’ (अंग्रेजी उपन्यास ‘हंगर’ का अनुवाद), 1933 में ‘ज्योतिर्मयी’, 1934 में ‘रूप-रेखा’, 1935 में ‘सविता’ प्रकाशित हुई। इन उपन्यासों के पुनर्प्रकाशन भी हुए, तो ‘गरीबी के दिन’ उनके द्वारा अंग्रेजी से हिंदी में अनूदित उपन्यास है। ध्यातव्य है वे हिंदी के साथ-साथ अंग्रेजी, बांग्ला, उर्दू और नेपाली भाषा में भी साधिकार लिखते थे, उर्दू के ‘आजकल’ में भी छपे। उपन्यासकार के तौर पर क्षेत्र, प्रदेश और नेपाल में चर्चित होने के कारण 1935 में जापानी कवि योने नोगूची के कोलकाता आगमन पर उनके अभिनंदन हेतु प्रतिनिधि-मंडल में उन्हें भी शामिल किया किया गया। तब डॉ. माहेश्वरी सिंह ‘महेश’ कलकत्ता (कोलकाता) में पढ़ते थे। नेपाल (विराटनगर) में 25 एकड़ भूमि उन्हें रजिस्ट्री से प्राप्त हुई। वर्ष 1936 में हिंदी पुस्तक एजेंसी, कोलकाता ने ‘काव्यालंकार’ नाम से शोध-पुस्तक प्रकाशित की, तो 1937 में उनके दो उपन्यास प्रकाशित हुए, हिंदी प्रचारक पुस्तकालय, वाराणसी से ‘मीमांसा’ और श्री अजंता प्रेस, पटना से ‘वे अभागे’ नामक उपन्यास। ‘मीमांसा’ पर ‘बहुरानी’ नाम से निर्देशक किशोर साहू ने हिंदी फिल्म बनाये, परंतु इस निर्देशक के 500 रुपये प्रतिमाह पर कथा-लेखन के प्रस्ताव को ठुकराए। सन 1941 में ‘दस बीघा जमीन’ और ‘ज्वाला’ शीर्षक लिए उपन्यास प्रकाशित हुए। वर्ष 1942 से रीढ़, गर्दन, डकार इत्यादि रोगों से मृत्यु तक लड़ते रहे। स्वास्थ्य-लाभ के क्रम में ‘महर्षि रमण आश्रम’ और ‘श्री अरविंद आश्रम’ (पांडिचेरी) भी रहे तथा इन द्वय के जीवनी-लेखक के रूप में ख्याति भी अर्जित किये। अंग्रेजी और बांग्ला से अनूदित उपन्यासों को जोड़कर उनके द्वारा कुल 24 उपन्यास लिखे गए। अन्य उपन्यासों में आवारों कई दुनिया, दर्द की तस्वीरें, बुझने न पायें, रक्त और रंग, अभियान का पथ, अन्नपूर्णा, केंद्र और परिधि, तूफान और तिनके, शेष पांडुलिपि, उत्तर पुरुष इत्यादि शामिल हैं। अनूपजी के जीवनकाल में प्रकाशित अंतिम उपन्यास ‘नया सुरुज, नया चान’ (अंगिका भाषा में), जो 1979 में प्रकाशित हुई थी, इस उपन्यास का विमोचन 11 नवंबर 1979 को शिक्षक संघ भवन, पटना में पूर्व मुख्यमंत्री भोला पासवान शास्त्री की अध्यक्षीय समारोह में हुई थी। उन्होंने बच्चों के लिए भी बाल-कहानियां, एकांकी और किताबें लिखी, यथा- उपनिषदों की कथाएँ, मुसोलिनी का बचपन आदि। उनके द्वारा रचित सभी विधा की रचनाओं का विपुल भंडार हैं, जो कि बिहार राष्ट्रभाषा परिषद, पटना के संज्ञानार्थ यह संख्या 3 दर्जन से अधिक हैं। असली साहित्यकार के रूप में उनकी पहचान 9 अक्टूबर 1950 में ‘बिहार राष्ट्रभाषा परिषद, पटना’ में प्रथम ‘प्रकाशनाधिकारी’ पद पर नियुक्ति के बाद ही अभिलेखित हुई। अनूपलाल मंडल इतने रचकर भी अपठित और विस्मृत क्यों हो गए हैं ? देश और बिहार की बात ही छोड़िये, उनके गृहजिला के कितने व्यक्ति उन्हें जानते हैं? कितने साहित्य-मनीषियों ने उनकी रचनाएँ सिंहावलोकित किए हैं ? स्वीकारात्मक उत्तर में कुछ फीसदी ही होंगे! अनूपलाल मंडल के विस्मृत हो जाने या अचर्चित रह जाने की एक वजह बिहार के स्कूलों और विश्वविद्यालयों के हिंदी पाठ्यक्रमों से उनको निकाल बाहर करना है। आरम्भ से ही बिहार के हिंदी पाठ्यक्रमों से अनूपलाल मंडल का नाम मिटा देने की साज़िश का नतीजा है कि विद्यार्थियों की कौन कहे, एम. ए. तक हिंदी पढ़ाने वाले बिहार के प्राध्यापकों तक ने ऐसे महत्वपूर्ण उपन्यासकार का नाम नहीं सुना! किसी भी साहित्यकार का कुछ नहीं पढ़ना और साहित्यकार का नाम ही न सुनना– दो भिन्न स्थितियाँ हैं। अनेक साहित्यकार हैं, जिनका लिखा हमने-आपने नहीं पढ़ा है, लेकिन नाम सुना है, किंतु अनूपलाल मंडल बिहार के ऐसे अभिशप्त कथाकार हैं, जिनका नाम ही मिटता जा रहा है। हालाँकि 1948 में प्रकाशित व अनूपजी द्वारा बांग्ला से हिंदी में अनूदित रचना ‘नीतिशास्त्र’ को कुछ कालावधि के लिए टी. एम. भागलपुर विश्वविद्यालय के पाठ्यक्रम में शामिल किया गया था और ‘मीमांसा’ के अंश को आई. ए. पाठ्यक्रम हेतु रांची विश्वविद्यालय ने शामिल किया था।
जमीन और आमलोगों से जुड़े अनूपजी द्वारा ऐसे कृत्यकारक समझ से परे है! तब क्या कारण रहे होंगे या उनकी भूमिका ‘दरबारी’ की थी, यह सुस्पष्ट तब हुआ जा सकता है, जब उनकी आत्मकथा प्रकाशित होगी! ‘मैला आँचल’ के अमरशिल्पी फणीश्वरनाथ रेणु के पिता शिलानाथ मंडल (विश्वास) और अनूपलाल मंडल के बीच दोस्ताना संबंध था, इस दृष्टि से अनूपजी ‘रेणुजी’ के पितातुल्य थे। ऐसा कहा जाता है, रेणुजी को लेखक बनाने में क्षेत्र के अन्य लेखक-त्रयी का अमिट योगदान रहा है, उनके नाम हैं- अनूपलाल मंडल, सतीनाथ भादुड़ी (बांग्ला) और रामदेनी तिवारी ‘द्विजदेनी’ । इतना ही नहीं, ‘मैला आँचल’ की पांडुलिपि का प्रूफरीडिंग और टंकण अनूपजी ने ही कराए थे। अनूपजी ने रेणु-प्रसंग को लिखा है- “नेशनल स्कूल, फारबिसगंज में मुझे एक व्यक्ति मिला, जिनका नाम श्री शिलानाथ विश्वास (मंडल) था, परिचय हुआ और वह परिचय हमदोनों की मित्रता का कारण बना अनूपजी के उपन्यास प्रेमचंदीय उपन्यासों की भाँति प्रगतिशील यथार्थ में अंतर्निहित नहीं हैं, अपितु उनकी रचनाएँ अज्ञेयजी की रचनाओं की भाँति रोमांटिक यथार्थ से जुड़े हैं। उन्हें ‘साहित्य रत्न’ से लेकर विक्रमशिला हिंदी विद्यापीठ ने ‘विद्यासागर’ की मानद उपाधि भी प्रदान किया था। 21 सितंबर 1982 को बिहार का प्रेमचंद कहाने वाले हिंदी के अप्रतिम महान रचनाकार अनूपलाल मंडल का निधन हुआ।

“साकी की मुहब्बत में दिल साफ हुआ इतना,
जब सर को झुकाता हूँ, तो शीशा नज़र आता है।”

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