बिहारशरीफ, 3 सितंबर 2021 : शंखनाद, साहित्यिक मंडली द्वारा स्थानीय भैसासुर मोहल्ले में आयोजित साहित्यिक परिचर्चा की कड़ी “वर्तमान परिप्रेक्ष्य में साहित्य की भूमिका” विषय में एक संगोष्ठी का आयोजन फारसी भाषा के विद्वान और नामचीन अन्तर्राष्ट्रीय शायर एवं गजलकार बेनाम गिलानी की अध्यक्षता में आहुत किया गया। इसके विशिष्ट अतिथि थे झारखण्ड केंद्रीय विश्वविद्यालय राँची के “कला एवं रंगमंच विभाग” के प्रोफेसर शाकिर तसनीम। इस अवसर पर नालंदा के इतिहासकार एवं लेखक डा.लक्ष्मीकांत सिंह की कालजयी उपन्यास, “डुकारेल की पूर्णिया” का विमोचन किया गया। डा. सिंह की साहित्यिक कृतियों की एक लंबी फेहरिस्त है। इस अवसर पर डुकारेल की पूर्णिया की चर्चा करते हुए शंखनाद के सचिव राकेश बिहारी शर्मा ने कहा कि यह एक कालजयी कृति है।यह कहानी 18वीं शताब्दी की एक सच्ची घटना पर आधारित है।इसके अंदर एक अँग्रेज अधिकारी की समाज और आम आदमी के प्रति समर्पित सेवा और कर्तव्यनिष्ठा का सजीव चित्रण मिलता है। इसमें तत्कालीन भारतीय सामाजिक व्यवस्था के साथ सांस्कृतिक विरासत और वानस्पतिक धरोहरों का अति सूक्ष्म विवरण मिलता है।सती प्रथा, नारी उत्पीड़न, जमींदारों का आतंक, किसानों की दुर्दशा और गरीबी का एक जीता जागता उदाहरण मिलता है।सम्भवतः यह ऐसी पहली रचना है जिसमें एक साथ सम्पूर्ण भारतीयता की झलक मिलती है।
इस कार्यक्रम के विशिष्ट अतिथि प्रोफेसर शाकिर तसनीम ने कहा है कि डा.लक्ष्मी कांत सिंह की रचना,” डुकारेल की पूर्णिया” इस सदी की एक अग्रणी साहित्यिक कृति है।इसकी कथानक भले ऐतिहासिक पृष्ठभूमि पर आधारित है लेकिन यह साहित्य के सभी अंगों से परिपूर्ण रचना है।इसमें साहित्य के नौवों अंग ,श्रृंगार, हास्य, करुणा, वीर,भय,वीभत्स, अद्भूत एवं शांति रस की प्रतीति होती है।इसमें प्राचीन भारत और आधुनिक सामाजिक परिवेश की जीवंत चित्रण मौजूद है।यह उपन्यास भारतीय पृष्ठभूमि के लोगों की तत्कालीन सोच और पुरुष प्रधान समाज की दुर्व्यवथाओं की तश्वीर है। इस कहानी के तमाम पात्र सामाजिक चिंतन और व्यवस्था को आचूलमूल परिवर्तन का संदेश देते हुए नजर आते हैं। कहानी का नायक डुकारेल, एक अँग्रेज अधिकारी है जो शासक वर्ग का प्रतिनिधि है।लेकिन एक विधवा स्त्री की जीवन रक्षा के लिए अपनी जान जोखिम में डाल देता है।इतना ही नहीं उस निसहाय औरत की बेवशी को मिटाने के लिए अपनी जीवन संगिनी बना लेता है। उस अनपढ़ स्त्री को पढा लिखा कर योग बना कर अपने देश इंग्लैंड ले जाता है। उसका चरित्र एक शासक का न होकर, एक अति मानवीय और जनसेवक का है।जो आम भारतीयों के लिए संदेश है।यह कार्य अविस्मरणीय ही नहीं अलौकिकता का प्रतिमान है। शायद ऐसा भारत के लोग सोच भी नहीं सकते। डुकारेल उस औरत का न रिश्तेदार था और ना कोई जान पहचान थी। फिर भी उसे वह बेहिचक अपनाया।जहां भारत के जाति और धर्म सम्प्रदायवादी जमात उसे निकृष्ट मान बहिष्कृत करता है, वहीं वह विधर्मी उसे सहारा देता है। यह उपन्यास इतिहास, भूगोल, प्रकृति और परिवेश के साथ जीव जंतुओं से भी हमारा परिचय कराता है।यह एक सर्वश्रेष्ठ भारतीय साहित्य की धरोहर है।
शंखनाद के उपाध्यक्ष बेनाम गिलानी ने कहा कि यह उपन्यास नहीं एक इतिहास है, जिसमें भारत की आम आदमी की पीड़ा के साथ जीव जंतुओं के दर्द को भी वर्णित करता है।इसके अंदर कई भाषा और बोलियों का अद्वितीय संगम है।इस प्रकार की रचनाएं आज दुर्लभ है। शिक्षा शास्त्री मो.जाहिद हुसैन ने अपनी प्रतिक्रिया देते हुए कहा कि डुकारेल की पूर्णिया को पढना साहित्य की मनमोहक फुलवारी में विचरण करने जैसा है।यह ऐसी कहानी है जो पढना शुरू करने के बाद छोड़ना मुश्किल है। साहित्य की भावमयी प्रवाह के आनंद का अनुभव करने के लिए डुकारेल की पूर्णिया को पढना अपने आप में बेमिसाल है।डुकारेल जैसा व्यक्ति भी भारत के रंग में रंग जाता है और यहां की मिट्टी को चंदन की तरह अपने माथे पर लगाता है। इस अवसर पर मंच संचालन करते हुए नवनीत कृष्ण ने कहा कि आज साहित्य ही समाज को रास्ता सुझा सकता है।इस तरह के गोष्ठी के आयोजन से समाज में साहित्यिक वातावरण बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकते हैं। यह आयोजन समाज की रुचि, उसमें आ रहे बदलाव पर चिंतन-मनन कर एक सार्थक माहौल बनाने में सहायक रहा है। साहित्य भारतीय समाज को बिखराव से बचाने के लिए कुटुंब को बचाने की बात “डुकारेल की पूर्णिया” उपन्यास बखूबी करता है। यह मां, मातृभाषा और मातृभूमि के महात्म्य को स्थापित करता है।इस संगोष्ठी में शंखनाद के अध्यक्ष डॉ. लक्ष्मीकांत सिंह, साहित्यसेवी सरदार वीर सिंह, डा. विश्राम प्रसाद, धीरज कुमार, संजय कुमार शर्मा, रोहित कुमार, प्रिया रत्नम,आदि ने अपना विचार रखा।